Journey of 156 years: The amazing legacy of Tata Group and Ratan Tata
दुनिया के सबसे प्रभावशाली उद्योगपतियों में शामिल रतन टाटा अपनी शालीनता और सादगी के लिए मशहूर रहे। वह कभी अरबपतियों की किसी लिस्ट में नजर नहीं आए। 30 से ज्यादा कंपनियों के कर्ताधर्ता होने के बाद भी उन्होंने सादा जीवन बिताया।
एक औद्योगिक समूह के रूप में टाटा ग्रुप भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए एक अजूबा है। पारिवारिक परंपरा में चलने वाले एक उद्यमी ढांचे के लगातार फैलते हुए इतना लंबा टिक जाने की मिसालें इक्का-दुक्का ही मिलेंगी। गुजरे 156 वर्षों में इस ग्रुप ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का चरम पर जाना और बिखरना देखा। भाप के इंजन से लेकर AI तक के तकनीकी बदलाव देखे। 1929 की महामंदी और 2008-09 में उसका दोहराव देखा। दो विश्वयुद्ध देखे। भारत की आजादी उसके विभाजन के साथ देखी। सोशलिस्ट मुहावरे वाली भारतीय अर्थव्यवस्था को खुलते और ग्लोबलाइज होते देखा। अपनी कंपनियों का राष्ट्रीयकरण और उनका वापस अपने झंडे तले आना देखा। और यह सब देखकर भी भविष्य देखने के लिए बचा रहा।
इस पूरी अवधि में जिन चार लोगों ने इसकी कमान संभाली- जमशेदजी टाटा, दोराबजी टाटा, जेआरडी टाटा और रतन टाटा- उनमें किसी का भी रास्ता आसान नहीं था, लेकिन रतन टाटा के लिए चीजें कुछ ज्यादा ही मुश्किल थीं। 10 साल की उम्र में ही उनके मां-बाप अलग हो गए और दोनों ने शादी करके अपने-अपने परिवार भी बसा लिए। रतन टाटा को उनकी दादी ने पाला। पिता की भूमिका दूर से देखरेख तक ही सीमित रही। उनसे अपने रिश्तों के बारे में रतन टाटा ने अपने एक इंटरव्यू में बताया कि ‘मैं वायलिन सीखना चाहता था, पिता चाहते थे पियानो सीखूं। मैं अमेरिका में पढ़ाई करना चाहता था, पिता मुझे ब्रिटेन में पढ़ाना चाहते थे। मेरी दिलचस्पी आर्किटेक्चर में थी जबकि पिता मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे।’ अंततः उन्होंने अमेरिका से आर्किटेक्चर की डिग्री ली और दो साल वहां एक फर्म में नौकरी भी की। उन्हें भारत बुलाकर टाटा ग्रुप से जोड़ने की पहलकदमी जेआरडी टाटा की ही थी।
जो भी हो, टाटा ग्रुप के मैनेजरियल ढांचे में फिट होने के लिए रतन टाटा ने अपनी जीवनशैली से कोई समझौता नहीं किया। मुंबई में लोग उन्हें उनकी सहज दिनचर्या के लिए याद करते हैं। घर में गाने सुनते हुए अपने कुत्तों के साथ अकेले ही मगन रहना। सुबह तैयार होकर होटल ताज पहुंचना। उसके लाउंज में समुंदर की लहरें देखते हुए टोस्ट-ऑमलेट का नाश्ता करके दफ्तर जाना। मुंबई में बसने की शुरुआत में ही सीनियर मैनेजरों के साथ की गई उनकी पुणे की एक यात्रा भी याद की जाती है, जिसमें बीच रास्ते गाड़ी का पहिया पंक्चर हो गया था। बाकी मैनेजर वहां बाहर निकलकर चाय-पानी के जुगाड़ में जुटे जबकि रतन टाटा ने अपना ध्यान ड्राइवर के साथ पहिया बदलने में लगाया। लोगों ने कहा, ड्राइवर के काम में क्यों लगे पड़े हैं। रतन टाटा ने जवाब दिया कि हाथ लगा देने से सफर में जो भी दो-चार मिनट बचेंगे, उसका फायदा सबको मिलेगा।
खुद को किया साबित
1980 का दशक बीतना शुरू हुआ और टाटा ग्रुप का नेतृत्व बदलने की चर्चा जोर पकड़ने लगी तो इसके लिए सबसे पहला नाम रूसी मोदी का उभरा। वे टाटा स्टील का काम देख रहे थे और उनका राजनीतिक प्रबंधन भी बहुत मजबूत था। 1991 में जेआरडी टाटा ने अपनी जगह रतन टाटा को लाने की घोषणा की तो इसमें मुख्य भूमिका कंपनी के शेयरहोल्डर नंबर 2 पैलन मिस्त्री की थी, जो जेआरडी के फैसले के साथ थे। लेकिन ग्रुप की 95 कंपनियों के सीनियर मैनेजमेंट पर रूसी मोदी की पकड़ बहुत मजबूत थी और लगता नहीं था कि उनका समर्थन रतन टाटा को मिल सकेगा। अगले बीस साल उन्होंने यह साबित करने में लगाए कि नेता दूरदृष्टि और बेहतर कार्यसंस्कृति के बल पर खड़ा होता है, मीडिया मैनेजमेंट और राजनीतिक जुगाड़ों की भूमिका इसमें बहुत ज्यादा नहीं हो सकती।
जब नेतृत्व पर छाया संकट
2012 में 75 साल की उम्र में टाटा ग्रुप का नेतृत्व छोड़ने के बाद रतन टाटा ने पैलनजी मिस्त्री के बेटे साइरस मिस्त्री को अपनी जगह ला तो दिया, लेकिन यह बदलाव कारगर नहीं रहा। जल्द ही ग्रुप में झगड़े शुरू हो गए और 2016 में छह महीने के लिए रतन टाटा को दोबारा अपनी जगह लौटना पड़ा। इसका अगला कदम यह रहा कि ग्रुप का शीर्ष नेतृत्व पारसी दायरे से बाहर चला गया और इसे पूरी तरह प्रफेशनल बना दिया गया। यहां से आगे चेयरमैन इमेरिटस की भूमिका में आए रतन टाटा ने मिस्त्री परिवार के साथ एक लंबी मुकदमेबाजी का नेतृत्व किया। यह मुकदमेबाजी 2021 में सुप्रीम कोर्ट में मिस्त्री परिवार का दावा खारिज होने के साथ खत्म हुई और टाटा ग्रुप में बंटवारे या उसका प्रबंधन बदलने का खतरा जाता रहा।
लोगों से लगाव का रिश्ता
बहरहाल, देश में रतन टाटा को इन दांव-पेचों के लिए नहीं, लोगों से इंसानी रिश्ता रखने वाले एक व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। निजी जीवन में उन्हें कहीं भी लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करने में समस्या नहीं होती थी। शान-शौकत, तड़क-भड़क उनके मिजाज में रही नहीं और वे भारत के अकेले ऐसे उद्योगपति थे, जिन्होंने अपने ग्रुप के स्तर पर यह नियम बनवाया कि कंपनी में हाजिरी लगने से लेकर घर पहुंचने तक उनके हर कर्मचारी को ‘ऑन ड्यूटी’ माना जाएगा। आम धारणा आने-जाने की अटेंडेंस लगने की ही है और यह जानना भी मुश्किल है कि कोई व्यक्ति घर पहुंचने से पहले और कहां-कहां जा सकता है। लेकिन ‘ऑन ड्यूटी’ वाली व्यवस्था से किसी दुर्घटना की स्थिति में कर्मचारी को मिलने वाले मुआवजे पर फर्क पड़ता है।
शादी करते-करते रह गए
लोगों को उत्सुकता रहती थी कि उनके जैसा रोमांटिक इंसान आजीवन अविवाहित कैसे रह गया। इसका जवाब उन्होंने एक जगह यह दिया था कि कई कारणों से चार बार वे शादी करते-करते रह गए। इनमें पहला वाला किस्सा ट्रैजिक है। अमेरिका में नौकरी करते हुए वे एक लड़की से प्रेम करते थे और उससे शादी करने वाले थे। जेआरडी के बुलाने पर वे भारत आ गए और यहां टाटा ग्रुप की नौकरी भी कर ली। उनकी प्रेमिका शादी के लिए भारत आने को राजी थीं लेकिन 1962 में भारत-चीन युद्ध के माहौल में टाटा खानदान के लोगों को लगा कि इस समय विदेशी लड़की से शादी ग्रुप के लिए समस्याएं पैदा कर सकती है। ऐसी स्थिति में इंतजार करना करियर के दबावों से घिरी एक अमेरिकी लड़की के लिए संभव नहीं हो पाया।
पैमाना बने रहेंगे रतन
बहरहाल, अपने काम से काम रखने वाले और उसमें पूरा आनंद लेने वाले, अपने नजरिये में भरोसा रखने वाले और केवल उसी के बल पर आगे बढ़ने वाले उद्यमियों की पीढ़ी रतन टाटा के साथ ही दुनिया को अलविदा कह रही है। आंकड़ों से खेलने वाले, इतर कारणों से चर्चित रहने वाले, शक्ति के तमाम धागों का संचालन करने वाले लोग जैसे हर क्षेत्र में आगे आ रहे हैं, वैसा ही उद्यम जगत के साथ भी हो रहा है। भारतीय उद्यमियों की छाप अभी पूरी दुनिया पर पड़ रही है लेकिन लोगों की नजर में कभी उनका कद नापने की बारी आई तो पैमाना रतन टाटा ही बनेंगे।